जयंती विशेष: मजरूह सुल्तानपुरी की हकीम से शायर और फिर गीतकार बनने की कहानी बहेद दिलचस्प है!
हिंदुस्तान के मशहूर शायर और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी की आज 104वीं जयंती है। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में यूं तो एक से बढ़कर एक अज़ीम गीतकार हुए, लेकिन एक गीतकार ऐसा भी हुआ। जिसने हिंदी सिनेमा के ब्लैक एंड व्हाइट दौर से लेकर कलर्ड फ़िल्मों तक अपनी क़लम का जादू बिखेरा।
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंज़िल मगर।
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।।
असरारुल हसन ख़ान जो फ़िल्म इंडस्ट्री में मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से मशहूर हुए। पहले वह पेशे से एक हक़ीम थे। मरीज़ों की नब्ज़ देखकर उनको दवाएं देना उनका काम था। लेकिन शेरो-शायरी में भी उनका ख़ूब मन लगता था। उनकी पैदाइश आज ही के दिन यानी 1 अक्टूबर 1919 को सुल्तानपुर में हुई थी। उनके पिता आज़मगढ़ के निज़ामाबाद में पुलिस डिपार्टमेंट में काम करते थे। वह नहीं चाहते थे कि मजरूह अंग्रेज़ी मीडियम से तालीम हासिल करें बल्कि वह अरबी और फ़ारसी में तालीम हासिल करें। लिहाज़ा वह अरबी और फ़ारसी में तालीम हासिल करने लगे।
उसके बाद मजरूह लखनऊ के तक़मील उत तिब कॉलेज में यूनानी दवाओं की तालीम लेने लगे। इसके बाद वह एक हक़ीम बन गए। उनका इरादा था कि लोगों का इलाज किया जाएगा और वह हक़ीम साहब के नाम से मशहूर हो जाएंगे। शेरो-शायरी में बचपन से ही दिलचस्पी होने के चलते वह कुछ ग़ज़लें भी लिखते रहते थे। बतौर हक़ीम एक बार उन्होंने एक मुशायरे में जब अपनी ग़ज़ल पढ़ी तो लोगों ने उन्हें हाथों हाथ ले लिया। उसके बाद उन्हें मशहूर और मारुफ़ शायर जिगर मुरादाबादी की सोहबत हासिल हुई। उनसे मजरूह ने काफ़ी कुछ सीखा।
फिर साल 1945 में वह जिगर मुरादाबादी के साथ बम्बई चले गए। वहां एक इंस्टिट्यूट में आयोजित एक मुशायरे में मजरूह ने जब अपने शेर पढ़े तो वहां भी सुनने वालों ने उनकी ख़ूब तारीफ़ें की। उन्हीं सुनने वालों में बैठे थे, फ़िल्म इंडस्ट्री के मशहूर प्रोड्यूसर ए.आर.कारदार, जिन्होंने जिगर मुरादाबादी से मुलाक़ात की और उनसे अपनी ख़्वाहिश का इज़हार किया कि मैं मजरूह से मिलना चाहता हूँ और मैं यह भी चाहता हूँ कि वह मेरी फ़िल्म के लिए गाने लिखें। लेकिन उसके लिए मजरूह सुल्तानपुरी ने साफ़ साफ़ इनकार कर दिया।
बात यह थी कि उस दौर में लोग फ़िल्म इंडस्ट्री को अच्छी जगह नही मानते थे। बड़े से बड़ा कलाकार भी फ़िल्म इंडस्ट्री में आने से कतराता था। ऐसे में जिगर मुरादाबादी ने उनका मन बदला। उन्होंने मजरूह से कहा कि देखो तुम फ़िल्मों में गाने लिखो जैसा तुम चाहते हो, इससे तुम्हे कुछ आमदनी भी हो जाएगी और तुम अपने घर वालों की देख रेख भी अच्छी तरह से कर पाओगे। इसके साथ साथ तुम्हारी शायरी भी चलती रहेगी। यह बात मजरूह सुल्तानपुरी को समझ में आ गई। उसके बाद वह फ़िल्मों में गाने लिखने के लिए राज़ी हो गए।
उसके बाद फ़िल्म प्रोड्यूसर ए.आर.कारदार उन्हें लेकर मशहूर म्युज़िक डॉयरेक्टर नौशाद के पास गए। जहां पर नौशाद ने उनका एक ज़बरदस्त इम्तिहान लिया। उन्होंने एक धुन उनके सामने रखी और बोले लीजिए मजरूह मियां, ज़रा इस धुन पर कुछ लिख कर दिखाइए। तब मजरूह सुल्तानपुरी ने अपनी क़लम उठाई और लिखा कि ” जब उसने गेसू बिखराए, बादल आए झूम के”। नौशाद को उनकी लिखी यह लाइन बहुत पसंद आई। उसके बाद उन्हें कारदार ने 1946 की अपनी फ़िल्म शाहजहां के लिए बतौर गीतकार साइन कर लिया। इस फ़िल्म के सभी गाने ज़बरदस्त हिट साबित हुए। इस फ़िल्म के हीरो रहे मशहूर एक्टर और सिंगर के.एल.सहगल ने तो यहां तक कह डाला था कि जब उनका जनाज़ा उठाया जाए तो उनकी इस फ़िल्म का गाना जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे ज़रूर बजाया जाए।
मजरूह सुल्तानपुरी ने जिन फ़िल्मों के लिए गाने लिखे उनकी फेहरिस्त बहुत लंबी है। उनकी कुछ मशहूर फ़िल्मों में सी.आई.डी, चलती का नाम गाड़ी, नौ दो ग्यारह, काला पानी, तुमसा नही देखा, पेइंग गेस्ट, तीसरी मंज़िल, ममता, अभिलाषा, क़यामत से क़यामत तक, जो जीता वही सिकंदर और अकेले हम अकेले तुम शामिल है।
मजरूह सुल्तानपुरी की ज़िंदगी में एक वक़्त ऐसा भी आया जब अपने राजनैतिक विचारों के लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। उनकी शायरी ने सरकारी सिस्टम पर ज़बरदस्त सवाल उठाए, जिसके नतीजतन उनको जेल भी जाना पड़ा। उनसे कहा गया था कि आप अगर माफ़ी मांग लें तो आपको छोड़ दिया जाएगा, लेकिन उन्होंने इससे साफ़ इनकार कर दिया।
यह क़िस्सा भी बड़ा मशहूर रहा कि उनके जेल में रहने के दौरान फ़िल्म इंडस्ट्री के मशहूर एक्टर, प्रोड्यूसर और डॉयरेक्टर राजकपूर ने सोचा कि इन हालात में मजरूह के परिवार का ख़र्च कैसे चलेगा। ऐसे में वह जेल में ही मजरूह सुल्तानपुरी से एक गाना लिखवाने पहुंचे। उसके लिए उन्होंने 1000 रुपए उनको दिए। मजरूह को कुछ समझ नही आया कि राजकपूर ने उन्हें इतने पैसे क्यों दिए, क्योंकि जो गाना वह मजरूह सुल्तानपुरी से लिखवा कर ले गए थे, उसको उन्होंने अपनी किसी फ़िल्म में इस्तेमाल ही नहीं किया था। काफ़ी सालों बाद उस गाने को राजकपूर ने अपनी फ़िल्म तीसरी क़सम में इस्तेमाल किया, जिसके बोल थे, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समाई काहे को दुनिया बनाई। यह गाना उस वक़्त बहुत पॉपुलर भी हुआ था।
अपने कॅरियर में उन्होंने तक़रीबन फ़िल्म इंडस्ट्री के सभी संगीतकारों के साथ काम किया। चाहे वह नौशाद रहे हों या फिर एस.डी. बर्मन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल रहे हों या फिर चाहे नए ज़माने के अनु मलिक और जतिन-ललित जैसे तमाम संगीतकार रहें हों, लेकिन शम्मी कपूर और आशा पारेख की फ़िल्म तीसरी क़सम को कौन भूल सकता है, जिसमें मजरूह के लिखे गानों को आर.डी. बर्मन ने ऐसी ख़ूबसूरत धुनों में पिरोया कि वह सारे गाने सुनने वालों के दिलों में हमेशा हमेशा के लिए समा गए।
मजरूह सुल्तानपुरी हिंदी सिनेमा में ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों के ज़माने से लेकर कलर्ड फ़िल्मों तक अपनी क़लम का जादू चलाते रहे। इस दौरान म्युज़िक डॉयरेक्टर्स का अंदाज़ भी बदलता गया। हीरो बदलते गए पर मजरूह सुल्तानपुरी की क़लम हर वक़्त में उस हिसाब से चलती रही। जहां मजरूह सुल्तानपुरी ने ब्लैक एंड व्हाइट दौर में राजकपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार जैसे कई दिग्गज अभिनेताओं के लिए गाने लिखे, वहीं रंगीन सिनेमा के नए दौर में उन्होंने सलमान ख़ान, आमिर ख़ान और शाहरूख़ ख़ान जैसे कई एक्टर्स के लिए गाने लिखे। आमिर ख़ान की पहली फ़िल्म क़यामत से क़यामत तक के लिए गाने मजरूह सुल्तानपुरी ने ही लिखे थे, जो सभी गाने एक से बढ़कर एक हिट साबित हुए। सलमान ख़ान की फ़िल्म ख़ामोशी तो वहीं शाहरुख़ ख़ान की फ़िल्म कभी हां कभी ना के लिए भी गाने उनकी ही क़लम से निकले।
जब 1962 में सुरों की मलिका लता मंगेश्कर को खाने में धीमा ज़हर दिए जाने की बात सामने आई तो उनको बहुत तकलीफ़ हुई। इस दौरान पूरे तीन महीने लता मंगेश्कर बिस्तर पर बीमार पड़ी रहीं। ऐसे में उन्हें कंपनी देने के लिए दिनभर स्टूडियो में काम करने के बाद मजरूह रोज़ शाम को लता के घर पहुंच जाते। वह उन्हें उस दौरान कहानियां सुनाते अपनी लिखी नई नई ग़ज़लें सुनाते, उनसे ख़ूब बात करके उनका दिल बहलाते। यहां तक कि लता को दिए जाने वाले खाने को पहले वह ख़ुद चखते। उनके कहने के बाद ही वह खाना लता को दिया जाता था। इस तरह लता मंगेशकर के बुरे दिनों में मजरूह सुल्तानपुरी ने उनके एक अच्छे दोस्त का फ़र्ज़ बख़ूबी निभाया।
यह बात भी कमाल की है कि मजरूह सुल्तानपुरी जैसे एक अज़ीम शायर ने बदलते वक़्त के साथ अपने उसूलों में कभी कोई तब्दीली नहीं आने दी। साल 1965 में उन्हें फ़िल्म दोस्ती के गीत चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड दिया गया। साल 1993 में हिंदी सिनेमा के इस अज़ीम शायर को फ़िल्म इंडस्ट्री के सबसे बड़े सम्मान दादा साहब फ़ाल्के अवॉर्ड से नवाज़ा गया। उससे पहले उन्हें 1980 में ग़ालिब अवॉर्ड और 1992 में इक़बाल अवॉर्ड से भी नवाज़ा जा चुका था। साल 2000 में उनको ज़बरदस्त निमोनिया हो गई और 24 मई 2000 को 81 साल की उम्र में वह इस फ़ानी दुनिया से हमेशा हमेशा के लिए रुख़सत हो गए। आज वह हमारे बीच नही हैं, लेकिन उनके लिखे अनमोल गीत और ग़ज़ल आज भी उन्हें हमारे बीच ज़िंदा रखे हैं।
(न्यूज़ नुक्कड़ के लिए अतहर मसूद का लेख)