मुसलमान कौम जो सभी पार्टियों की है, लेकिन उसकी कोई पार्टी नहीं
देश की 17 करोड़ की मुस्लिम आबादी के इक्के दुक्के रहनुमा हैं। बस यही हक़ीक़त है मुसलमानों की के उन्हें कोई मज़बूत रहनुमा नहीं मिला। ग़ुलाम नबी आजाद, आज़म खां, मुख़्तार अब्बास नक़वी, असदुद्दीन ओवैसी, सलमान ख़ुर्शीद, क्या इनमें से कोई एक ऐसा नाम है जिसके पीछे पूरी की पूरी मुस्लिम क़ौम अपने सुनहरे मुस्तक़बिल के ख़्वाब संजोये और आगे बढ़ सके?
इनमें से कौन सा ऐसा नेता है जिसने देश में मुसलमानों की बात को मज़बूती से रखा हो?
अगर नज़र दौड़ाएं तो इनसे ज़्यादा मुसलमानों के हक़ की बात का ज़िक्र लालू प्रसाद यादव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में करते रहे हैं। तो फिर इन नेताओं को अमुक पार्टी का मुस्लिम चेहरा कहलाने का हक़ क्या है?
ओवैसी थोड़ा बहुत मुस्लिमों के लिए बोलते भी हैं तो उनका तरीका मुसलमानों का उल्टा नुकसान कर देता है। तो क्या मुसलमान इस देश में बिना लीडर की क़ौम है? क्या वाकई मुसलमानों को लीडर की ज़रूरत है? अक्सर हमने देखा है कि किसी दौर में इस्तेमाल होने वाली क़ौम आने वाले वक्त में सम्भल जाती है, मगर मुसलमानों ने लगता है भटकना ही अपना मुक़द्दर मान लिया है।
मुसलमान भटक क्यों रहा है? क्या उसे किसी का डर दिखा कर भटकाया जाता रहा है? वो डर बनाया किसने? क्या सिर्फ डर ही वजह है? साफ़ है मुसलमान अपनी हालत के लिए ख़ुद भी ज़िम्मेदार है। असाम, यूपी, बिहार से लेकर बंगाल तक मुसलमान किसी न किसी पार्टी का वोट बैंक हैं (इलेक्शन तक), लेकिन देश की धर्म आधारित आबादी की बात की जाए तो सबसे ख़स्ता हालत मुसलमानों की ही है, जिसका सबूत है सच्चर कमेटी की रिपोर्ट। यानि मुसलमानों के भले की बात सबने की, लेकिन भला किसी ने नहीं किया। तो आख़िर मुसलमानों की बात अलग से की क्यों जाती है? क्यों नेता उनकी अलग से सिर्फ़ बात कर उन्हें ही बाक़ी मज़हबों के निशाने पे ला देते हैं ? और मुसलमान भी ऐसी जज़्बाती क़ौम है कि कोई ज़रा सा मुस्कुरा कर ‘मियां भाई सलाम’ क्या कह दे बस उसी का झंडा उठा लेते हैं। आज़ादी के वक़्त सरकारी नौकरियों में मुस्लिमों की भागीदारी 21 फीसदी थी, जो आज घटते-घटते महज़ 1.5 फीसदी रह गयी है, ये प्रतिशत भी कब तक बचेगा पता नहीं। इसका जिम्मेदार कौन है?
ज़ाहिर सी बात है सरकारें और उनके साथ मुसलमान ख़ुद जो तालीम का दामन छोड़ते जा रहे हैं। आज मुल्क में मुसलमानों की पहचान पंक्चर जोड़ने वालों, सिलाई करने वालों और बाल काटने वालों के तौर पर बन चुकी है। अगर कश्मीर जैसे उथल पुथल भरे इलाके से कोई मुस्लिम लड़का टॉप कर सकता है तो बाकी शांत इलाकों के मुस्लिम लड़कों को मेहनत करने से किसने रोका है?
याद रखिये आज़ादी की लड़ाई अगर पढ़े लिखे महात्मा गांधी, डॉक्टर अम्बेडकर, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद जैसे लोग नहीं लड़ते तो आज़ादी शायद ही मिलती। आज मुसलमानों में कोई है जो सर सैयद अहमद खां की तरह किसी कॉलेज के लिए झोली फैलाकर लोगों से चंदा मांगे?
तो फिर मुसलमानों को क्या हक़ है ये कहने का कि पढ़ लिख के नौकरी तो मिलनी नहीं है तो सोचा बच्चों को कोई हुनर ही सिखा दें। दरअसल मुसलमानों की एक बड़ी जमात ने तालीम की अहमियत ही नहीं समझी आजतक। अगर पूरी मुस्लिम इक़रा पर चलते हुए तालीम हासिल करती तो किसी की हिम्मत नहीं होती उसे वोट बैंक समझने की और ये क़ौम ख़ुद फ़ैसला करती कि वो हुक़ूमत में किसे देखना चाहती है, इस क़ौम के ख़ुद के पढ़े लिखे लीडर होते। मुसलमानों को चाहिए कि वो किसी पार्टी का न तो झंडा उठाएं और न ही किसी पार्टी से ज़्यादा दूरी बढ़ाएं, बल्कि पार्टियों के सामने अपनी तालीम, कारोबार और बाकी बुनियादी सहुलतों के मुद्दे रखें और देखें जो उनके पहलू को बेहतर शक्ल देने का अहद करे उसे ही सपोर्ट करें। लेकिन मुसलमानों को ये भी याद रखना होगा कि वो मुल्क के दूसरे मज़हब के बंदों से ज़्यादा या अलग कुछ न मांगें, क्योंकि किसी भी किस्म का ‘फ़र्क’ एक नई सियासत को जन्म देगा। हो सके तो अपने बीच से किसी क़ाबिल पढ़े लिखे लीडर को चुनें जो मुसलमानों के साथ ही बाकि मज़हब के लोगों के हक़ की बात भी बराबरी से करे। आपको बकरी से शेर बनना होगा, आपको पीछे चलने वाली भीड़ बनने की जगह लीडर तराशने ही होंगे।
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