उत्तराखंड स्पेशल: क्यों खत्म होती जा रही है गढ़वाल की ये परंपरा?

उत्तराखंड विविधताओं का प्रदेश हैं। यहां के अलग-अलग क्षेत्रों की अपनी संस्कृति और परंपरा है।

अपनी संस्कृति और परंपराओं की वजह पहाड़ों की इस प्रदेश की अपनी अलग पहचान है, लेकि बदलते वक्त के साथ ही परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं। इसी तरह की गढ़वाल की एक परंपरा है डड्वार। नए वक्त में ये परंपरा मिटती सी जा रही है। डड्वार, गढ़वाल में दिया जाने वाला एक तरह का पारितोषिक है। जिसे पहले तीन लोगों ब्राह्मण, लोहार और औजी को दिया जाता था। अब धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म होती जा रही है। इसके बदले अब लोग अब पैसे देने लगे हैं। दरअसल प्रदेश में सालभर में दो मुख्य फसलें होती हैं। जिसमें एक गेहूं-जौ और दूसरी धान की। इसमें हर फसल पर डड्वार दिया जाता था।

डड्वार में फसल पकने के बाद पहला हिस्सा देवता को दिया जाता था। जिसे पूज कहा जाता है। इसके बाद दूसरा हिस्सा पंडित का दिया जाता था। ये एक तरह की पंडित को दक्षिणा होती थी। तीसरा हिस्सा लोहार का था, जो फसल काटने से पहले हथियार तेज करता था। इसे धान की फसल पर पांच सूप धान दिए जाते थे। जबकि गेहूं की फसल पर तीन पाथे जौ और एक पाथी गेहूं दिया जाता था। इसके अलावा दिवाली पर घर पर आकर ढोल बजाने या शादी विवाह या फिर किसी खुशी के मौके पर ढोल बजे वाले को भी डड्वार दिया जाता था। इसे लोहार से थोड़ कम दो सूप धान और दो पाथी जौ और एक पाथी गेहूं दिया जाता था। औजी को बाजगिरी समाज के नाम से जाना जाता है। इसका मुख्य व्यवसाय शादी विवाह और शुभ मौकों में ढोल बजाना था।

बौरु भी डड्वार की ही तरह मजदूरी के बदले दिया जाने वाला पारितोषिक है, लेकिन ये डड्वार से थोड़ा अलग है। ये किसी ग्रामीण महिला या पुरुष द्वारा खेतों में काम करने या दूसरे काम करने के बदले दिया जाने वाली दैनिक मजदूरी है। जिसे अनाज के रूप में दिया जाता है। लेकिन अब बदलते वक्त में काम के लिए मेहेनताने के तौर पर मजदूरी दी जाती है।

गढ़वाल में पहले जब सांकेतिक मुद्रा नहीं थी, तब काम के बदले मजदूरी के तौर पर डड्वार, दिया जाता था। गांव में कुछ जगहों पर आज भी डड्वार और बौरु जैसी परंपरायें कुछ हद तक जिंदा है, लेकिन ज्यादातर जगहों पर ये परंपरा अब विलुप्त हो गई है।

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