पहाड़ों पर बंजर ज़मीन पर उगने वाली हल्दी उत्तराखंड के किसानों के अच्छे दिन लाएगी। ये बहुत काम की हल्दी है। वन हल्दी को कपूर कचरी, गंधवटी, स्पाइक्ड जिंजर लिली के नाम से भी जाना जाता है। इसका वनस्पतिक नाम हेडीकीयम स्पाइकेटम है।
यह जिंजीविरेसी कुल का पौधा है। इसका इस्तेमाल दवा और खुशबू बनाने वाले उद्योगों में किया जाता है। वन हल्दी के कंद का संपूर्ण भाग जहां औषधि उपयोग में लाया जाता है। वहीं इसके कंद से सुगंधित तेल निकाला जाता है।
इसका पौधा 4-7 हजार फीट की ऊंचाई वाले इलाकों में खुद से ही उत्पन्न होता है। इसकी जड़ों में मुख्य रसायनिक तत्व सिरोस्टीरोल और ग्लूकोसाइड पाए जाते हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक इसका इस्तेमाल क्षयरोग, खांसी, पेचिस, उल्टी, सिरदर्द और चर्मरोगों में फायदेमंद होता है। इसके तेल में साइनियोल, टर्पोनिन, लिमीनीन डी सेनिनीन जैसे रसायनिक तत्व मिलते हैं। इन तत्वों का कृमि रोग और जीवाणु रोधी औषधि के रूप में किया जाता है। वन हल्दी 18-24 महीने में दोहन के लिए तैयार हो जाती है। इसकी खासियत ये है कि इसे ना तो जंगली जानवर नुकसान पहुंचाते हैं और ना ही पालतू पशु इसे खाते हैं। एक और खासियत ये है कि एक नाली की जमीन में इसकी उपज करीब दस कुंतल तक की जा सकती है। इसके कंद के चूर्ण की कीमत सौ रुपये प्रति किलो और तेल का बाजार मूल्य 1600 रुपये प्रति लीटर है।
खबरों के मुताबिक वन हल्दी के विपणन के लिए डाबर से अनुबंध कर लिया गया है। उपज काश्तकारों से खरीद कर सीधे डाबर को दी जाएगी। इस परियोजना से लमगड़ा के भांगा देवली, नाटा डोल, धौणां, मेरगांव तथा भैसियाछाना के मगलता आदि गांवों के काश्तकार को फायदा होगा।
(अल्मोड़ा से हरीश भंडारी की रिपोर्ट)
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