उत्तराखंड

Video: कुमाऊं में बैठकी होली की धूम, 19वीं सदी की परंपरा को पहाड़ ने संजोकर रखा है, आप भी सुनिए

उत्तराखंड में होली उत्सव अपने शबाब पर है। कुमाऊं में बैठकी होली की धूम है। इसकी शुरूआत पौष माह के पहले रविवार से विष्णुपदी होली गीतों के साथ हुई।

19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में बैठकी होली गायन का श्रीगणेश अल्मोड़ा में मल्ली बाजार स्थित हनुमान जी के मंदिर से हुआ। इस स्थान ने तत्कालीन कई सुप्रसिद्व कलाकारों इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रहरों में अलग-अलग शास्त्रीय रागों पर आधारित होलियां गाई जाती हैं। इसमें पीलू, झिंझोटी, काफी, जंगला, खमाज सहाना, बिहाग, जैजैवन्ती, जोगिया, परज, भैरवी, बागेश्वरी सहित अनेक रागों में भी बैठकी होलियां विभिन्न पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ गाई जाती हैं। कुमाउनी होली में दिन और रात के अलग-अलग प्रहरों और अलग-अलग समय में अलग-अलग राग-रागिनियों में होलियां गाने का प्रावधान है।

चंद वंशीय शासकों की राजधानी अल्मोड़ा में उस दौर के प्रख्यात शास्त्रीय गायक अमानत अली खां की शागिर्द ठुमरी गायिका राम प्यारी यहां आई और स्थानीय शास्त्रीय संगीत के अच्छे जानकार शिव लाल वर्मा, जवाहर लाल साह आदि उनसे संगीत सीखने लगे। पहली होलियां भगवान गणेश की ही गाई जाती हैं। पौष माह के पहले रविवार से शुरू होने वाली होलियां भी भगवान गणेश, शिव और कृष्ण की भक्ति युक्त होती हैं। इन्हें निर्वाण की होलियां कहा जाता है। यह सिलसिला शिवरात्रि तक चलता है। इनमें राग काफी में प्रथम पूज्य भगवान गणेश की होली ‘गणपति को भज लीजै और ‘क्यों मेरे मुख पै आवे रे भंवरा, नाही कमल यह श्याम सुंदर की सांवरी सूरत को क्यों मोहे याद दिलाए, श्याम कल्याण राग में ‘माई के मंदिरवा में दीपक बारूं जंगला काफी में ‘होली खेलें पशुपतिनाथ नगर नेपाल में आदि प्रमुख हैं। वहीं, शिवरात्रि से शिव की होलियां अधिक गाई जाती हैं। आगे बसंत पंचमी से होली गीतों में श्रृंगार रस चढ़ने लगता है।

फाल्गुन माह में पुरुषों के द्वारा रंग युक्त खड़ी और महिलाओं के द्वारा बैठकी होलियां गाई जाती हैं। इन्हीं दिनों कुछ मुसलमान गायक भी अल्मोड़ा आते रहे। इसमें विशेष रूप से उस्ताद अमानत हुसैन का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है, जिन्होंने होली गायकी को एक व्यवस्थित या यह कहें कि एक उप-शास्त्रीय स्वरूप प्रदान किया और उन्हीं के द्वारा चांचर ताल की भी रचना की गई। चांचर ताल का प्रयोग बैठकी होली गायन में किया जाता है। इसी अवधि में हुक्का क्लब ने भी बैठकी होली गायन की परम्परा को अपनाया, जो पिछले 80-85 वर्षों से आज तक निर्बाध रूप से चली आ रही है।

70 के दशक में अल्प अवधि के लिए। इसमें व्यवधान आया पर इसके बाद इसने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। हुक्का क्लब की बैठकी होली अपनी विषिष्टता, मर्यादा और अनुशासन के लिए सभी क्षेत्रों में जानी जाती है। यहां के होली गायकों द्वारा अन्यत्र भी होली बैठकों में भाग लेकर इसके प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। अपने प्रारम्भिक काल में जिन होली गायकों ने हुक्का क्लब की होली बैठकों को जमाया उनमें प्रमुख थे।

स्व. शिवलाल बर्मा गांगी थोक, हरदत्त शास्त्री, देवीदत्त उप्रेती, चन्द्रलाल वर्मा (कवि), प्रेमलाल साह (पिरीसाह) जवाहरलाल साह, जगमोहन लाल साह, मोतीराम साह ‘चकुड़ायत’, गोविन्द लाल साह (चड़ी), फणदत्त जी, हीरालाल वर्मा (जीबू सेठ), चन्द्रसिंह नयाल, भवान सिंह, मोहन सिंह (नकटी), रामदत्त तिवारी ,बचीलाल वर्मा (बची बाबू) कृष्णानन्द भट्ट जी आदि (सभी स्वर्गीय)। जीबू सेठ ने तो होली गाते-गाते ही अपने प्राण त्याग दिए थे। होली के दिनों में स्व. रामदत्त तिवारी, गफ्फार उस्ताद, रतन मास्टर, रामसिंह, मोहनसिंह, देवीलाल बर्मा (सभी स्वर्गीय) जैसे तबला वादकों की संगत हुआ करती थी। स्व. ईष्वरीलाल साह जी का सितार, स्व. परसी साह, चिरंजी साह, जुगल रईश, वेदप्रकाष बंसल, गोबिन्द सिंह, जगत सिंह जी का वायलिन और स्व. मोतीराम जोशी और बिज्जी बाबू का मंजीरा वादन चाहे बीते दिनों की स्मृति बनकर रह गया हो पर इन सभी दिवंगत कलाकारों के आशीर्वाद से आज की पीढ़ी एक नए उत्साह से हुक्का क्लब की परम्परा को पूरी निष्ठा के साथ निभाते चली आ रही है।

(अल्मोड़ा से हरीश भंडारी की रिपोर्ट)

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NN Web Desk

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