उत्तराखंड के पहाड़ अपने में कई इतिहास समेटे हुए है। इसी में से एक जगह है ब्रह्म पर्वत।
कहा जाता है कि महाभारतकालीन पांडू पुत्रों ने अज्ञातवास के दौरान देवभूमि में कई जगह पर रुके थे, लेकिन द्वापर युग में पांडू पुत्रों ने अज्ञातवास का आखिरी दौर उत्तराखंड के पहाड़ों पर गुजारे। अल्मोड़ा में हिंदू मतावलंबियों के लिए प्रसिद्ध द्रोणागिरि पर्वत श्रृंखला पर स्थित है पांडवखोली। माना जाता है कि द्वापर युग में पांडू पुत्रों ने अज्ञातवास का आखिरी दौर यहीं गुजारा था। कहा जाता है यहीं पर उन्होंने ध्यान लगाया, योग किया। कालांतर में महाअवतार बाबा ने इसी जगह से वैदिक संस्कृति से जुड़े क्रिया योग को पुनर्जीवित किया। ये पर्वत शिखर ब्रह्मज्ञान भी कराता है लिहाजा इसे ब्रह्म पर्वत भी कहा जाता है।
पौराणिक लोक कथाओं के मुताबिक जबल पांडव जुए में सब कुछ हार गए, तो उन्हें अज्ञातवास भी झेलना पड़ा था। कहते हैं कि पांडव अपनी राजधानी हस्तिनापुर की सीमा पार कर जब उत्तराखंड पहुंचे तो साधुवेश में गर्ग नदी को पार कर पहाड़ की सीमा को पार कर कुमाऊं के वर्तमान प्रवेश द्वार काठगोदाम से आगे रानीबाग होते हुए पहाड़ी चढऩा शुरू किया। कहते हैं यहां से सीधा गगार की चोटी से रामगढ़ और मुक्तेश्वर होते हुए पांडव गरमपानी रानीखेत और गगास नदी के किनारे बगवालीपोखर पहुंचे।
कहा जाता है कि पांडवों का पीछा करते पीछा करते हुए कौरव भी पहुंचे। बगवालीपोखर में पांडवों ने अचानक तेजी से पथ बदल दिया। और सीधा ऋषि गर्गी की तपोस्थली भरतकोट की चोटी की ओर बढ़ गए। जबकि कौरव थक हार कर बगवालीपोखर में ही रुक गए। वहां द्युत क्रीड़ा में मस्त हो गए। दूसरी आरे पांडव महाराजा भरत की तपोस्थली भरतकोट की शिखर से होकर दूनागिरि की उस चोटी की ओर बढ़ गए, जहां वैदिक काल में महाबली हनुमान लक्ष्मण के लिए संजीवनी बूटी लेकर लंका के लिए हवाई मार्ग से आगे बढ़े थे।
कहते हैं कि पांडवखोली की अध्यात्मिक गुफा में ध्यानमग्न भीम अक्सर अपनी रजाई को सुखाने के लिए पर्वत शिखर पर फैला देते थे। इस अद्भुत पूरे मैदान को आज भी भीम की गुदड़ी के नाम से जाना जाता है। ये भी मान्यता है कि पांडव जिस घास से दतून करते थे, वह वनस्पति प्रजाति वज्रदंती के रूप में आज भी विद्यमान है। लोग यहां नवंबर और दिसंबर के बीच लगने वाले मेले में भीम की गुदड़ी यानी भीम के मैदान से वज्रदंती लेकर लौटते हैं।
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