अनकहे किस्से: रौबीला चेहरा, बड़ी-बड़ी मूंछें, पहलवान जैसा शरीर, ऐसे थे शहंशाह-ए-मौसिकी बड़े गुलाम अली साहब

बात उस वक़्त की है जब हिंदुस्तान के एक मशहूर फिल्म निर्माता और निर्देशक के. आसिफ़ अपनी ड्रीम प्रोजेक्ट फिल्म मुग़ल-ए-आज़म बना रहे थे।

फिल्म के एक दृश्य में उन्हें मुग़ल दरबार के गायक तानसेन की आवाज़ में एक गीत दिखाना था। इसके लिये वह बहुत परेशान हुए कि भला तानसेन की आवाज़ जैसा गायन किससे करवाया जाए, तब उनके ज़हन में उस वक़्त के मशहूर शास्त्रीय संगीत गायक उस्ताद बड़े गुलाम अली खान का नाम आया। इस बात को जैसे ही उन्होंने फिल्म के संगीतकार नौशाद को बताया तो उन्होंने तुरंत उन्हें मना कर दिया और कहा की बड़े गुलाम अली खान तो फिल्मों में गाने से साफ़ परहेज़ करते हैं, लेकिन के. आसिफ़ कहां मानने वाले थे। उन्होंने नौशाद साहब से बार-बार ज़िद की और कहा कि उन्हें अपनी फिल्म के लिये बड़े गुलाम अली खान की ही आवाज़ चाहिए।

के. आसिफ के ज़िद करने पर नौशाद सहाब उन्हें बड़े गुलाम अली खान के पास लेकर गए। बड़े गुलाम अली खान ने इंकार करने की नीयत से अपने एक गाने की फीस के. आसिफ़ से 25000 रुपये मांगी, लेकिन के. आसिफ़ ने तुरंत जवाब दिया की मैं तो इससे कहीं ज़्यादा ही सोच कर आया था, बल्कि गौर करने वाली बात यह है की उस वक़्त मो. रफ़ी और लता मंगेशकर जैसे गायकों को उनके एक गीत के लिये 500 रुपये मिला करते थे। खैर नौशाद के बार-बार ज़ोर देने पर बड़े गुलाम अली खान तैयार हो गए। फिल्म में गाने के लिये, फिल्म के गीतकार शकील बदायूंनी को फिल्म के प्रसंग पर उनके लिये गीत लिखने को कहा गया। इसके बाद उस गीत को बड़े गुलाम अली खान ने ठुमरी गायन के सबसे प्रचलित, राग सोहनी में गाया और वो गीत था “प्रेम जोगन बन के” जो की फिल्म के रिलीज़ होने पर काफ़ी हिट हुआ, फिल्म के और गीतों की तरह।

यह किस्सा इस बात का सबूत है की भारतीय शास्त्रीय संगीत में बड़े गुलाम अली खान की क्या हैसियत थी, उनका क्या वक़ार था, उनका जन्म 1902 में अविभाजित हिंदुस्तान के लाहौर के कसूर में हुआ था। अपनी सुरीली और मंत्रमुग्ध कर देने वाली आवाज़ से उन्होंने बेहिसाब शोहरत पाई और उनके प्रशंसक और चाहने वाले आज भी बहुत हैं। मशहूर गज़ल गायक गुलाम अली उनके ही शिष्य हैं।

बड़े गुलाम अली खान को बचपन से ही संगीत में बहुत दिलचस्पी थी और उसकी वजह ये थी कि संगीत इनके पूरे परिवार में रचा बसा था। उन्होने संगीत की शिक्षा अपने पिता अली बख्श खाँ, चचा काले खाँ और दादा शिन्दे खाँ से हासिल की। उनके पिता राजा कश्मीर के दरबारी गायक थे, और यह घराना संगीत का कश्मीर घराना कहा जाता था। बाद में यह लोग पटियाला में रहने लगे, जिसकी वजह से बाद में यह संगीत का पटियाला घराना कहा जाने लगा।

बड़े गुलाम अली खान की आवाज़ को पहचान 1919 में लाहौर में आयोजित एक संगीत सम्मेलन में मिली और फिर इसके बाद इलाहाबाद और कलकत्ता में हुए संगीत सम्मेलनों ने इन्हे काफ़ी मशहूर और मक़बूल कर दिया। उन्हें ठुमरी में किये अपने नये-नये प्रयोगों के लिये भी जाना जाता है। उन्होंने ठुमरी को परम्परा के दायरे से निकालकर उसे एक अलग अंदाज़ में लोगों के सामने पेश किया, जिसमें हिंदुस्तान के लोक संगीत की झलक और मिठास खास तौर पर देखने को मिलती है। रौबीला चेहरा, बड़ी बड़ी मूंछें, पहलवान जैसा हठ्ठा-कठ्ठा बदन, जिसे देखकर यह कह पाना किसी के लिये मुश्किल ही था कि इस शख्स का संगीत से कोई नाता भी है, लेकिन जब उनके गले से स्वर फ़ूटता था तो हर कोई उनकी मौसिक़ी में डूब जाता था। बड़े गुलाम अली खान ने सबरंग नाम से कई बंदिशे भी गाई हैं।

1947 में हिंदुस्तान के बंटवारे के बाद वह पाकिस्तान चले गए थे, लेकिन उन्हें वहां की आबो हवा ज़्यादा दिन रास नही आई और वह दोबारा हिंदुस्तान लौट आए और फिर ताउम्र यहीं के होकर रह गए। 1957 में मोरार जी देसाई की मदद से उन्हे हिंदुस्तान की नागरिकता भी मिल गई। सरकार की तरफ़ से उन्हें मुंबई के मालाबार हिल्स में समुंदर किनारे एक बंगला भी दे दिया गया, हालांकि उनका ज़्यादातर वक़्त लाहौर, कलकत्ता और हैदराबाद में बीता।

1962 में उन्हे भारत सरकार द्वारा पद्मभूषण से नवाज़ा गया और बाद में उन्हे संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी दिया गया। अपने आखिरी दिनों में वह पैरालिसिस के शिकार हो गए थे और 1968 में हैदराबाद के बशीरगढ़ पैलेस में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

“हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है,

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा”

(न्यूज़ नुक्कड़ के लिए अतहर मसूद की रिपोर्ट)

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