उत्तराखंड अपनी लोक संस्कृति, रीति रिवाजों को लेकर देश दुनिया में अपनी अलग पहचान है। यहा की प्राचीन संस्कृति जनमानस में रची बसी है।
एक ऐसी ही प्राचीन संस्कृति हुड़किया बोल की है, जो खेती कार्य से जुड़ी है। हालांकि ये परंपरा अब धीरे-धीरे खत्म होने के कगार पर खड़ी है। लेकिन पहाड़ के कई हिस्सों में खेती की ये प्राचीन परम्परा आज भी गूंजती दिखती है।
कुमाऊं क्षेत्र में हुड़किया बोल की परंपरा काफी पुरानी है। सिंचित भूमि पर धान की रोपाई के वक्त इस विद्या का प्रयोग होता है। महिलाएं कतारबद्ध होकर रोपाई करती हैं। उनके आगे लोक गायक हुड़के की थाप पर देवताओं के आह्वान के साथ किसी लोकगाथा को गाता है। इसमें बेहतर खेती और सुनहरे भविष्य की कामना की जाती है। माना जाता है कि हुड़किया बोल के चलते दिनभर रोपाई के बावजूद थकान महसूस नहीं होती। हुड़के की थाप पर लोक गीतों में ध्यान लगाकर महिलाएं तेजी से रोपाई के कार्य को निपटाती है। समूह में कार्य कर रही महिलाओं को हुड़का वादक अपने गीतों से जोश भरने का काम करता है। यह परम्परा पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी कुमाऊं के कई हिस्सों में जीवंत है।
पहाड़ों में जून में बारिश के साथ ही खेतों में रोपाई का काम शुरू हो जाता है। पहले रोपाई में हुड़किया बोल का बोलबाला रहता था, अब यह प्रथा कम होती जा रही है। हालांकि कुछ गांव अब भी हुड़के की थाप पर झोड़ा-चांचरी गाकर रिवाज को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। अल्मोड़ा के सोमेश्वर क्षेत्र के बोरारो घाटी में हर साल हुड़किया बोल के साथ ही रोपाई की जाती है। ग्रामीणों का मानना है कि हुड़के की थाप पर रोपाई से काम आसान हो जाता है। गानों के बोल और हुड़के से निकलने वाली मधुर ध्वनि थकान का अहसास नहीं होने देती। सोमेश्वर के बौरारो घाटी में इन दिनों हुड़किया बौल के साथ रोपाई देखी जा सकती है।
ग्रामीण सीएल टम्टा कहते हैं कि कुमाऊं में रोपाई के वक्त हुड़किया बौल की लोक परम्परा काफी पुरानी है। लेकिन आज यह परम्परा अल्मोड़ा के सोमेश्वर घाटी और बागेश्वर के बिनौला में देखने को मिलती है। इस परंपरा में महिलाएं समूह में इकठा होकर एक दूसरे की रोपाई को जल्दी जल्दी निपटाती है। हुड़का वादक उनमें जोश भरने का कार्य करता है।
(अल्मोड़ा से हरीश भंडारी की रिपोर्ट)
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