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उत्तराखंड में बूढ़ी दिवाली की धूम, जानें क्या है ये परंपरा

भगवान राम के 14 साल बाद वनवास पूरी कर अयोध्या पहुंचने की खुशी में दीप प्रज्वलित कर दीपावली मनाई जाती है।

 पहाड़ों उनके आगमन की खबर 11 दिन बाद यानि देवोत्थान एकादशी (हरीबोधनी एकादशी) को पहुंचा। तब से अभी तक इन कन्दराओं में, विशेषकर, उत्तराखंड में बढ़ी दीपावली का उत्सव मनाया जा रहा है। इस बार यहां यह 25 नवंबर को मनाया जाएगा।

आईएएस से सेवानिवृत्त और साहित्य मनीषी मंजुल कुमार जोशी के मुताबिक, हिमालयी राज्य के कुमायूं मंडल में जहां इस त्योहार को बूढ़ी दिवाली कहा जाता है, वहीं गढ़वाल मंडल में इगास बग्वाल कहा जाता है। दिवाली की विभिन्न किंवदन्ती में शामिल मर्यादा पुरूषोत्तम राम के अयोध्या आगमन के साथ, भगवान विष्णु और लक्ष्मी से जुड़ी किंवदन्ती भी दृष्टव्य होती है।

ऐसी मान्यता है कि अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती हैं, इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। वहीं, हरिबोधनी एकादशी यानी इगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। इसलिए इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है। जिस तरह देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुरू होकर गुरु पर्व (कार्तिक पूर्णिमा) तक दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। ये अलग बात है कि इनके नाम अलग-अलग त्योहारों के नाम से जाने जाते हैं। इसी तरह, शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। इसे ही इगास-बग्वाल कहा जाता है। इन दोनों दिनों में सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा की जाती है।

राज्य के सूचना एवं लोक संपक विभाग के अपर निदेशक डाक्टर अनिल चन्दोला बताते हैं कि इगास बग्वाल में मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी (मंडुवे के आटे का हलुवा) और जौं का पींडू (आहार) तैयार किया जाता है। साथ ही, भात, झंगोरा, बाड़ी और जौ के बड़े लड्डू तैयार कर उन्हें परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है। सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे गोग्रास कहते हैं।

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