उत्तराखंड विशेष: स्कॉटलैंड का बैगपाइपर कैसे पहाड़ों के लोक संगीत का अभिन्न हिस्सा बन गया?
लोक गीत, संगीत, डांस वगैरह एक इलाके की पारंपरिक सांस्कृतिक और समृद्धि को दर्शाते हैं। पहाड़ों के संगीत की भी अपनी अलग पहचान है। उत्तराखंड के संगीत में प्रकृति का वास है। यहां के गीत-संगीत हमें प्रकृति के और करीब ले आती हैं।
जिस तरह से पहाड़ों की खान-पान से लेकर रहन-सहन तक सब देश के दूसरे हिस्सों से काफी जुदा है। ठीक उसी तरह यहां का पारंपरिक संगीत भी काफी अलग। यहां के प्राचीन गीतों में जहां प्रकृति सम्मत-आख्यान मिलते हैं, वहीं आधुनिक लोक गीतों में नए जमाने की वस्तुओं, फैशन का उल्लेख मिलता है। खास ये है कि यहां के अलग-अलग संगीत की तरह ही अलग-अलग तरह के म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट भी हैं।
उत्तराखंड के म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट की बात करे तो जैसे बिना बैगपाइप के ये पूरी नहीं हो सकता है। उसी तरह यहां के परंपरागत ढोल-नगाड़े की अपनी पहचान और जगह है। खास बात ये कि बैगपाइप यानि मशकबीन स्कॉटलैंड से यहां आई है। ये स्कॉटलैंड का नेशनल म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट है। अब यह उत्तराखंड के लोक संगीत में इस कदर घुल मिल गई है कि इसके बिना यहां के म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट की लिस्ट अधूरी है।
क्या है बैगपाइप का इतिहास?
बैगपाइप के उत्तराखंड में आने की कहानी एक सदी से भी पुरानी है। 19वीं सदी में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में ब्रिटिश फौज सबसे पहले इसे लेकर आई थी। हालांकि इसे लोकप्रियता 20वीं सदी में मिली। उत्तराखंड के संगीत प्रेमियों के मुताबिक पहले विश्व युद्ध में गए गढ़वाली और कुमाउंनी सैनिकों ने मशकबीन बजाने का हुनर सीखा और धीरे इस कला को ऐसा अपनाया कि अपने यहां इसका प्रचलन शुरू कर दिया। धीरे-धीरे ये शादी समारोह के संगीत में भी ये इस्तेमाल होने लगा।
लोक संगीत के जानकारों की मानें तो उत्तराखंड के परंपरागत वाद्य समूह में ढोल, नगाड़े, डमरू, थाली, हुड़का वगैरह तो थे ही, लेकिन फूंक से बजने वाला कोई सुरीला म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट नहीं था। मशकबीन ने सुरों की इस कमी को पूरा किया और इस तरह वो लोक संस्कृति का हिस्सा बन गई। आज कुमाऊं में छोलिया डांस और गढ़वाल में पौणा डांस में नाचने वालों की कदमताल मशकबीन की धुन से और बढ़ जाती है।
मशकबीन पर क्यों छाए संकट के बादल?
परंपरा में रच बस जाने के बावजूद बदलते वक्त में लोक वाद्यों पर पैदा हुए संकट का असर मशकबीन पर भी दिखता है। इसे बजाने वाले कलाकार अपनी नई पीढ़ी तक इसे नहीं पहुंचा सके पाए। हालांकि सरकार का ध्यान इस तरफ जरूरत गया है। संस्कृति विभाग ने लोक वाद्यों के संरक्षण लिए गुरु-शिष्य परंपरा योजना शुरू की है। बैगपाइप भी इसका हिस्सा है।
अल्मोड़ा से हरीश भंडारी की रिपोर्ट