कब और कैसे हुई कुंभ की शुरुआत, इस भव्य मेले का इतिहास जानते हैं आप?
हरिद्वार एक अप्रैल से शुरू हो रहे महाकुंभ में साधु-संतों के साथ ही बड़ी तादाद में श्रद्धालु भी धर्मनगरी में पहुंचने लगे हैं।
इससे पहले महाशिवरात्रि के बड़ी तादाद में श्रद्धालुओं ने शाही स्नान किया। इस बार का कुंभ कोरोना के लिहाज से कई मायनों में काफी अलग है। इस बार कोरोना की वजह से कुंभ सीमित रहेगा। साथ ही यहां आने वाले हर किसी को कोरोना गाइडलाइंस का पालन करना होगा। कुंभ की शुरुआत होत ही ये चर्चा भी तेज हो जाती है कि इसकी शुरुआत कब और कैसे हुई। आज हम आपको कुंभ के इतिहास के बारे में बताते हैं।
कुंभ की शुरुआत कब हुई ये बता पाना किसी के लिए बहुत मुश्किल है। हालांकि विद्वानों की माने तो सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन के समय इस आयोजन की शुरुआत हुई थी और आठवीं शताब्दी के आखिर तक आदि शंकराचार्य ने इसका फलक व्यापक कर दिया। महाकुंभ में तभी से स्नान ध्यान, पूजा-पाठ आदि की परम्परा है। शाही स्नान भी बाद में इसका हिस्सा रहे। जहां एक ओर शाही स्नान वैभव का प्रतीक रहे हैं, वहीं कई बार अखाड़ों के आपसी संघर्ष ने इसे रक्तरंजित भी किया है। बताया जाता है कि शाही स्नान की शुरुआत 14वीं-16वीं शताब्दी के मध्य में हुई। ये वह दौर है जब विदेशी अक्रांताओं की बुरी नजर भारत पर लगी हुई थी। यहां किसी केंद्रीय सत्ता का अभाव था। देश राज्यों में बंटा था। असुरक्षित हो चला था।
इतिहासकारों के मुताबिक इस दौर में हिंदु राजाओं के लिए धर्मसत्ता सर्वोपरि थी। इसी वजह से साधु-संतों से रक्षा की गुहार लगाई गयी। कालान्तर में राजा और धर्म प्रतिनिधि में संधि होने लगी। बदले में संतों ने राष्ट्र की रक्षा का वचन दिया। राजाओं ने बदले में जो तोहफे वगैरह दिए वो संतों के लिए उपयोग के नहीं थे, लेकिन संत इन सोने, चांदी के सामान, हाथी, घोड़े वगैरह का इस्तेमाल किसी खास मेले वैगरह में करते थे। यहीं से शाही स्नान परम्परा शुरू हो गई।
अलग-अलग अखाड़ों से ताल्लुक रखने वाले संतगण इन्हीं संसाधनों का इस्तेमाल कर शाही स्नान में अपना वैभव दिखाते आए हैं। कहा जाता है कि अखाड़ा शब्द मुगलकाल से शुरू हुआ। अखाड़ा शब्द का मतलब उस जगह से है जहां पहलवान कसरत वगैरह करते हैं। संतों के अखाड़ों में साधुओं का वो दल होता था जो शस्त्र विद्या में भी पारंगत हो। शाही स्नान की परम्परा और स्नान की व्यवस्था अंग्रेजों के समय से ही अधिकारियों द्वारा होती रही है।
बताया जाता है कि 1310 के हरिद्वार महाकुंभ में महानिर्वाणी अखाड़े और रामानन्द वैष्णवों के बीच खूनी संघर्ष हुआ था। वहीं 1398 के अर्धकुंभ में तैमूर लंग ने भी जमकर उत्पात मचाया था। 1760 में शैव संन्यासियों एवं वैष्णव बैरागियों के बीच संघर्ष हुआ था। 1796 के कुंभ में शैव संन्यासी और निर्मल संप्रदाय आपस में भिड़ गये थे। 1927 और 1986 में भीड़ दुर्घटना की वजह बनी थी। 1998 में भी हरकी पैड़ी पर अखाड़ों में संघर्ष हुआ। अब एक बार फिर कुंभ आ चुका है। जिसके लिए धर्मनगरी सज चुकी है।