स्पेशल: संविधान लागू होने के 71 साल बाद भी उत्तराखंड के इस गांव के लोगों को नहीं मिला मौलिक अधिकार!

देश 72वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। देश के हर नागरिक को एक नजरिये से देखने उन्हें बराबरी का हक देने के लिए 26 जनवरी 1950 के ही दिन संविधान लागू हुआ था।

26 जनवरी को इसलिए चुना गया था क्योंकि 1930 में इसी दिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आई० एन० सी०) ने भारत को पूर्ण स्वराज घोषित किया था। लेकिन आपको ये जानकर हैरानी होगी कि आज 72 साल बाद भी उत्तराखंड का एक गांव ऐसा भी है, जहां मकान तो पक्के हैं, लेकिन सड़कें सारी कच्ची हैं। आजादी के पहले टोंगिया पद्धति से जंगलों की परवरिश करने के लिए बसाए गए इस गांव का नाम भी हरिपुर टोंगिया हो गया, लेकिन वन ग्राम के रूप में दर्ज इस गांव के लोग देश की आजादी के बाद भी मूल अधिकारों से वंचित हैं।

यहां अंग्रेजों के राज के दौरान साल 1930 में वन अधिकार अधिनियम लागू हुआ था। इसके बाद टोंगिया पद्धति से वन क्षेत्रों में पौधे लगाने और पेड़-पौधों की परवरिश के लिए आसपास के ग्रामीणों को वनों में बसाया गया। इसी दौरान बुग्गावाला क्षेत्र में शिवालिक की पहाड़ियों में भी मुनादी कराकर मजदूरी कर गुजर बसर करने वालों को यहां बसाया गया। टोंगिया पद्धति से वनीकरण में मदद करने वाले यहां के ग्रामीणों को जहां बसाया गया, उसका नाम हरिपुर टोंगिया हो गया। यहां लोगों को दस-दस बीघा जमीनें भी दी गईं, जिस पर ग्रामीणों को तीन-तीन मीटर की दूरी पर पौधे लगाने थे। दूसरे साल तीन-तीन मीटर की दूरी पर पेड़ उगाने के लिए बीज दिए गए। इन तीन मीटर के बीच की दूरी में किसान अपने लिए फसल उगाकर गुजारा करते थे।

आजादी के बाद देखा गया कि जिस उद्देश्य से इन्हें यहां बसाया गया वो पूरा नहीं हो रहा है। जंगल बनाने के नाम पर माफिया ने जमीनों पर कब्जा करना शुरू कर दिया है तो इस पद्धति को खत्म कर दिया गया। तभी से ये परिवार वन विभाग की ओर से दी गई जमीनों पर खेती तो कर रहे हैं, लेकिन जमीनों के सभी अधिकार वन विभाग के पास हैं। मौजूदा वक्त में हरिपुर टोंगिया की आबादी तकरीबन 1200 है। इन लोगों को सरकार चुनने का अधिकार नहीं है। गांव और खेती की जमीनें वन विभाग के अधिकार क्षेत्र में होने के कारण यहां विधायक निधि, जिला पंचायत निधि या फिर किसी अन्य सरकारी योजना से सड़कें नहीं बनाई जा सकती हैं। यही वजह है कि सैकड़ों साल बाद भी गांव में एक भी पक्की सड़क नहीं बन सकी है।

हालत ये है कि इन लोगों के पा पक्के मकान बनाने का भी अधिकार नहीं है, लेकिन फिर भी अधिकांश लोगों ने स्थानीय जनप्रतिनिधियों की मदद से पक्की छतें जरूर डाल ली हैं। राहत की बात सिर्फ ये है कि कुछ साल पहले यहां बिजली की लाइनें भी खींच दी गईं, लेकिन ज्यादातर परिवार आज भी मेहनत मजदूरी कर गुजारा कर रहे हैं। सरकार की कल्याणकारी योजनाओं से भी वंचित हैं। हालांकि नवंबर, 2020 में शासन ने इस गांव को ग्राम पंचायत का दर्जा देने की कवायद शुरू की है। अब शासन की ओर से इन्हें अधिकार देने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। इससे ग्रामीणों को कुछ उम्मीदें जगी हैं।

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