उत्तराखंड: स्वयाही देवी में ग्रामीणों का कमाल, चीड़ के जंगल में लहलहाया चौड़ी पत्तियों का जंगल, राज्य के लिए बना मॉडल
उत्तराखंड के अल्मोड़ा में स्याही देवी के ग्रामीणों ने एक बड़ी मिसाल पेश की है। चीड़ के जंगल में ग्रामीणों ने चौड़ी पत्तियों का जंगल अपनी मेहन और लगन के बल पर तैयार किया है।
जिले के लिए चौड़ी पतियों का जंगल प्रेणा बना गया है। करोड़ों की लागत से हर साल वनविभाग द्वारा पौधारोपड़ किया जाता है, लेकिन देख-रेख के अभाव में नही बच पता था। ऐसे में इन ग्रामीणों ने बड़ी पहल को सभी लोग सलाम कर रहे हैं। चीड़ के पेड़ों के बीच बांज, बुरांस, काफल, अंग्यार, लोद आदि चौड़ी पत्ती प्रजाति के पेड़ों की हरियाली के नजारे किसी पौधारोपण कार्यक्रम का परिणाम नहीं हैं। सहायतित प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति (Assisted Natural Regeneration) जिसे संक्षेप में एएनआरभी कहा जाता है, का परिणाम है।
पिछले 15 वर्षों मे नौला, धामस, भाकड़, सल्ला, चंपाखाली, आनंद नगर, खरकिया, मटीला, पड्यूला, सूरी, बरसीला, गड़सारी, सड़का, छिपड़िया, स्याहीदेवी, शीतलाखेत और दूसरे गांवों की महिलाएं, युवा, जनप्रतिनिधियों के साथ वन विभाग के बहुत से ईमानदार, कर्त्तव्य निष्ठ वन कर्मियों की मेहनत और परिश्रम से लगभग 600 हैक्टेयर क्षेत्रफल में विकसित ये मिस्रित जंगल उत्तराखंड के चीड़ के जंगलों को मिस्रित जंगलों में बदलने के लिए रोल मॉडल साबित हो सकता है।
जंगल को विकसित होने में 15 साल लगे, जिसकी शुरुआत 2005-2006 में बहुत से गांवों के महिला मंगल दलों और स्याहीदेवी विकास मंच की सयुंक्त बैठक के बाद स्याहीदेवी-शीतलाखेत क्षेत्र के जंगल को मां स्याहीदेवी को समर्पित करने का फैसला लिया। महिलाओं ने जलौनी लकड़ी के लिए बांज, बुरांश, काफल, अंग्यार आदि चौड़ी पत्ती प्रजाति के पेड़ों को न काटने का वादा निभाया तो जंगलों में आग न लगे और आग लगने पर आग को रोकने, नियंत्रित करने में महिलाओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं, जनप्रतिनिधियों ने वन विभाग को हर साल भरपूर सहयोग दिया। हल, नहेड़ के लिए कट रहे बांज के पेड़ों को बचाने में वीएलस्याही हल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस तरह पौधारोपण के तामझाम के बिना विशुद्ध मिस्रित जंगल विकसित हो रहा है जो उत्तराखंड के बाकी इलाकों के लिए एक नजीर बन सकता है।
एएनआर पद्धति से विकसित जंगलों के बहुत से लाभ हैं जो इन जंगलों को कृत्रिम तरीकों अर्थात पौधारोपण से विकसित जंगलों से बेहतर साबित करते हैं। एएनआर से विकसित जंगल में पौधारोपण के तरीकों से विकसित जंगलों की तुलना में surface runoff (वर्षा जल का बहना) आधा हो जाता है। Soil Erosion ( मिट्टी का कटाव) भी आधा रह जाता है। इसके अलावा एएनआर पद्धति से विकसित जंगल बायोमास इकट्ठा कर कार्बन अवशोषण में तथा जैवविविधता को बढ़ाने में भी पौधारोपण से विकसित जंगलों से बहुत आगे रहते हैं।
राज्य गठन के बाद से अब तक लगभग 25 करोड़ पौधे रोपे जा चुके हैं और पौधारोपण में से कितने पौधे, पेड़ों के रूप में विकसित हुए कहा नहीं जा सकता है। लेकिन एएनआर पद्धति से विकसित ये जंगल इस बात का प्रमाण हैं कि अगर जंगलों को बचाने में जनसहभागिता सुनिश्चित की जा सके। ग्रामीणों को उचित विकल्प देकर जंगलों पर उनकी निर्भरता कम की जाए। वन विभाग और ग्रामीणों में परस्पर संवाद बनाया जाए तो बेहद कम समय में, बेहद कम संसाधनों में न केवल वर्तमान समय में मौजूद मिस्रित जंगलों को बचाया जा सकता है, बल्कि चीड़ के अवनत वन क्षेत्रों में फिर से बांज, बुरांस, काफल के मिस्रित जंगलों को विकसित कर पहाड़ के सभी धारों, नौलों, गधेरों और नदियों को फिर से उनका अतीत वापस लौटाया जा सकता है।
नीति निर्माताओं, पर्यावरण विशेषज्ञों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं, गैरसरकारी संगठनों से अनुरोध है कि पौधारोपण के स्थान पर एएनआर पद्धति को बढ़ावा देकर बेहतर पारिस्थितिकी तंत्र के विकास का मार्ग प्रशस्त करें। वहीं, जरूरत ये भी है कि वन विभाग पौधारोपण कर ग्रामीणों पर ही निर्भर न करे। वन विभाग को भी पौधों को बचाने के लिए वैसे तत्परता से काम करना होगा, जैसे की इलाके ग्रामीण काम कर रहे हैं।
(अल्मोड़ा से हरीश भंडारी की रिपोर्ट)