‘सदैव अटल’ रहेगा भारत का ये ‘रत्न’
अटल बिहारी वाजपेयी की 94वीं जयंती पर उनके स्मारक ‘सदैव अटल’ को राष्ट्र के नाम समर्पित किया गया। पीएम मोदी और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद समेत बड़े नेताओं ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।
Nation pays tributes to former Prime Minister of India and Bharat Ratna, late #AtalBihariVajpayee on his birth anniversary led by President, Vice President and Prime Minister ; Samadhi of Atalji 'Sadaiv Atal' Memorial dedicated to the nation pic.twitter.com/4aE2hK64LC
— DD News (@DDNewslive) December 25, 2018
जन्म और शिक्षा
भारत रत्न और राजनीति के सूरमा अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर की शिंदे की छावनी के पास हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी के पिता पंडित कृष्ण बिहारी उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के रहने वाले थे, लेकिन मध्यप्रदेश के ग्वालियर में वो एक स्कूल में अध्यापक थे। इसलिए पूरा परिवार वहीं बस गया। अटल की मां कृष्णा वाजपेयी गृहणी थीं। अटल के तीन भाई और तीन बहनें भी थीं। अटल बिहारी वाजपेयी भाई-बहनों में सबसे छोटे थे।
अटल बिहारी वाजपेयी की शरुआती पढ़ाई बड़नगर के गोरखी स्कूल में हुई। इस स्कूल में अटल जी के पिता पंडित कृष्ण वाजपेयी प्रिंसिपल थे। अटल ने यहां से आठवीं तक पढाई की। चूंकि गोरखी स्कूल सिर्फ आठवीं तक था। इसलिए आगे की पढ़ाई के लिए अटल बिहारी वाजपेयी को दूसरे स्कूल का रुख करना पड़ा। उन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेजियट स्कूल में दाखिला लिया। नौवीं से इंटरमीडिएट तक उन्होंने यहीं से पढ़ाई की। इस स्कूल में पढ़ाई के दौरान उन्होंने बहुत सारे डिबेट कॉम्पटीशन में हिस्सा लिया और फर्स्ट आए। इंटरमीडिएट करने के बाद अटल ने विक्टोरिया कॉलेज से ग्रेजुएशन किया।
ग्वालियर में ग्रेजुएशन करने के बाद अटल बिहारी वाजपेयी कानपुर चले गए और यहां से उन्होने से पॉलिटिकल साइंस में मास्टर्स किया। शिक्षक पिता की संतान होने की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी शिक्षा के महत्व को अच्छी तरह जानते थे। यही वजह है कि उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी। ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने LLB में एडमिशन ले लिया लेकिन उसे बीच में ही छोड़कर वो PHD करने के लिए लखनऊ चले गए। हालांकि PHD करने में उन्हें सफलता नहीं लगी और फिर वो पत्रकारिता से जुड़ गए। उन दिनों ‘राष्ट्रधर्म’ नाम से एक समाचार पत्र पंडित दीनदयाल उपाध्याय के सम्पादन में लखनऊ से छपा करता था। तब अटल बिहारी वाजपेयी इसके सह सम्पादक के रूप में नियुक्त किए गए।
राजनीतिक सफर
कॉलेज के दिनों में अटल बिहारी वाजपेयी छात्र संगठन से जुड़े रहे। 1943 में कॉलेज यूनियन के सचिव बने और फिर 1944 में उन्हे उपाध्यक्ष बना दिया गया। कॉलेज के दिनों से ही वाजपेयी संघ से भी जुड़ गए। डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय के निर्देशन में उन्होने राजनीति का पाठ पढ़ा। RSS हिन्दुत्ववादी विचारधारा की प्रमुख संस्था है, लेकिन तत्कालीन भारत सरकार की नज़र में ये संस्था अलगाववादी विचारधारा का पोषण कर रही थी। यही वजह है कि उस वक्त की सरकार ने RSS पर प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के पास राजनीतिक पार्टी बनाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा और इस तरह से जनसंघ का जन्म हुआ जिसके अध्यक्ष डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। अटल उस समय संस्था के साथ संगठनात्मक ढांचे से जुड़े गए। तब वो अध्यक्ष के निजी सचिव के रूप में दल का काम-काम देखा करते थे। भारतीय जनसंघ ने सबसे पहले 1952 के आम चुनावों में भाग लिया। चुनावों में दल को कोई विशेष कामयाबी नहीं मिली, लेकिन पार्टी को जिंदा रखने के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लोगों से जुड़े मुद्दे उठाते रहे।
आज की तरह ही 50 के दौर में भी जम्मू-कश्मीर का मुद्दा बेहद संवेदनशील था। लिहाजा श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर के लोगों को अपने अधिकारों के लिए जागरुक करना शुरू किया। धीरे-धीरे लोग इनके साथ जुड़ने लगे और अपने हक के लिए आवाज उठानी शुरू कर दी। विरोध के बढ़ते सुर को देखते हुए सरकार ने इस साम्प्रदायिक गतिविधि माना और डॉ. मुखर्जी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। 23 जून 1953 को ही मुखर्जी को जेल में मौत हो गई। इसके बाद जनसंघ की कमान पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के हाथों में आ गई। पार्टी ने 1957 में हुए इस आम चुनाव में हिस्सा लिया और 4 सीटों पर अपना कब्जा जमाया। पार्टी को 6 फीसदी वोट मिले थे। अटल बिहारी बलरामपुर सीट चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। लोकतंत्र के मंदिर में पहुंचने के बाद भी अटल बिहारी वाजपेयी ने कश्मीर मुद्दा नहीं छोड़ा। संसद में उन्होने कश्मीर मुद्दे को मजबूती से उठाया।
साल 1962 में हुए आम चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार फिर बलरामपुर सीट से ही चुनाव लड़ा, लेकिन पिछली बार की तरह उन्हें इस बार जीत नसीब नहीं हुई। कांग्रेस उम्मीदवार ने अटल बिहारी वाजपेयी को 1052 वोटों से हरा दिया। हालांकि इस चुनाव में जनसंघ ने तरक्की की और 4 से बढ़कर ये 14 सांसदों वाली पार्टी के रूप में सामने आई। इस संख्या के आधार पर राज्यसभा के लिए जनसंघ को दो सदस्य मनोनीत करने का अधिकार मिला। ऐसे में अटल बिहारी वाजपेयी और पंडित दीनदयाल उपाध्याय राज्यसभा से सांसद बन गए।
पहली बार बने मंत्री
तीसरे आम चुनाव में भले ही वाजपेयी हार गए हों, लेकिन चौथे और पांचवे आम चुनाव में फिर अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव जीत कर लोकसभा पहुंचे। जून 1975 में लगी इमरजेंसी के दौरान दूसरे लोगों की तरह जब अटल बिहारी वाजपेयी इसका विरोध किया तो उन्हें जेल में डाल दिया गया। जेल में रहते हुए अटल जी का स्वास्थ्य ख़राब हो गया। करीब 18 महीने बाद जब इमरजेंसी हटी और छठी लोकसभा के लिए चुनाव हुए तो देश की जनता ने पूरी तरह से इंदिरा गांधी को नकार दिया। नतीजा देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी। जनता पार्टी की सरकार में मोररारजी देसाई ने प्रधानमंत्री का पद संभाला। अटल बिहारी वाजपेयी को विदेश मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई। विदेश मंत्री रहते हुए वाजपेयी ने कई देशों का दौरा किया और भारत का पक्ष रखा। 4 अक्टूबर, 1977 में हुए संयुक्त राष्ट्र के अधिवेशन में अटल बिहारी वाजपेयी ने हिंदी में भाषण दिया और सब का दिल जीत लिया।
राम मंदिर के लिए अटल बिहारी का संघर्ष
80 से 90 के दशक के बीच भारतीय राजनीति एक बार फिर करवट ले रही थी। ये वो दौर था जब 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशवासियों की सहानुभूति लेकर कांग्रेस सत्ता में तो आ गई थी, लेकिन उसका किला कमजोर पड़ रहा था। धीरे-धीरे 90 का वो दौर भी आया जब देश में राम मंदिर का मुद्दा गरमाया। लालकृष्ण आडवाणी रथ यात्रा निकाल रहे थे और देश में कई जगह दंगे भी भड़क उठे थे। सुप्रीम कोर्ट ने विवादित ढांचे की यथास्थित बनाए रखने के आदेश दिया। तब अटल बिहारी वाजपेयी ही थे जिन्होने सभी से सर्वोच्च्य अदालत के फैसले का सम्मान करने की अपील की थी।
जब सिर्फ 13 दिन के लिए बने पीएम
आडवाणी की ये रथ यात्रा रंग लाई। देश में भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हवा बनने लगी और साल 1996 में हुए आम चुनाव में बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने 21 मई, 1996 को देश के 11वें प्रधानमंत्री के रूप में पद एवं गोपनीयता की शपथ ली। अटल बिहारी वाजपेयी की ये सरकार महज 13 दिन ही चली। वाजपेयी संसद में बहुमत साबित नहीं कर पाए और उनकी सरकार गिर गई। 13 दिन के प्रधानमंत्री को त्याग पत्र देना पड़ा।
फरवरी 1998 में 12वीं लोकसभा के चुनाव हुए। इस चुनाव में बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई। पार्टी को सबसे ज्यादा 177 सीटें मिली। गठबंधन करके बीजेपी ने सरकार बनाई और 19 मार्च 1998 को प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। इस बार बाजपेयी 13 महीने तक पर प्रधानमंत्री पद पर रहे। प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने तीन परमाणु परीक्षण किए और फिर हिंदुस्तान ने खुद को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित कर दिया
प्रधानमंत्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने ना सिर्फ देश को हर लिहाज से मजबूत करने की कोशिश की। बल्कि पड़ोसियों के साथ रिश्ते सुधारने की भी पूरी कोशिश की। उन्होंने पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान और भारत के बीच बस सेवा शुरू की, लेकिन पड़ोसी मुल्क को रिश्तों की मिठास पसंद नहीं आई। जिस वक्त वाजपेयी अच्छे रिश्तों की सड़क को मरम्मत करने में लगे थे। उसी समय दुश्मन ने अपनी नापाक साजिश को सफल करने के लिए कारगिल में घुसपैठ शुरू कर दी। देश के जवानों ने दुश्मन की इस नापाक साजिश को कामयाब नहीं होने दिया। कारगिल में करीब 2 महीने चले युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को धूल चटा दी।
अटल विहारी वाजपेयी की सरकार को उस वक्त बड़ा झटका लगा जब AIDMK ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। 15 अप्रैल 1999 को अटल विहारी वाजपेयी ने लोकसभा मे विश्वास मत पेश किया, जिसमे सरकार के पक्ष में 269 वोट पडे जबकि सरकार के विरोध में 270 वोट पडे। अटल विहारी वाजपेयी की सरकार एक मत से विश्वास प्रस्ताव हार गई।
सरकार गिरने के बाद अक्टूबर 1999 को फिर से आम चुनाव हुए। 13वीं लोकसभा चुनाव में बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई और देश में NDA की सरकार बनी। अटल बिहारी वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री बने। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की नेतृत्व में बनी NDA गवर्नमेंट ने सफलतापूर्वक 5 साल तो पूरे किए। अपने कार्यकाल में वाजपेयी ने प्रशासनिक, आर्थिक और ढांचागत सुधार किये। प्रधानमंत्री सड़क उद्योग योजना के तहत अटल विहारी ने देश में सड़कों को जाल बिछाया। हालांकि अपने कार्यकाल के दौरान वाजपेयी सरकार को कंधार प्लेन हाईजैक, तहलका स्टिंग ऑपरेशन समेत कई मुद्दों को लेकर किरकिरी भी झेलनी पड़ी।
देखते ही देखते 2004 के आम चुनाव आ गए। बीजेपी को ये उम्मीद थी कि। वाजपेयी का विकास बोलेगा। और पार्टी दोबारा सत्ता में आएगी और फिर से NDA की सरकार बनेगी। इसी उम्मीद के साथ पार्टी ने FEEL GOOD और INDIA SHINING का नारा भी दिया, लेकिन जनता को शायद FEEL GOOD नहीं हुआ था। उसने बीजेपी की जगह कांग्रेस को तरजीह दी और फिर से उसे गद्दी पर बैठा दिया।
पार्टी की हार के बाद साल 2005 में अटल विहारी वाजपेयी ने राजनीति से सन्यास की घोषणा कर दी। बीमारी के चलते अब अटल विहारी वाजपेयी आम जन की पहुंच दूर हो गए। देश का ये हीरा 17 2018 को भारत का ये हीरा हम सब को छोड़कर हमेशा के लिए चला गया।